कभी जिगर पे कभी दिल पे चोट पड़ती है
तिरी नज़र के निशाने बदलते रहते हैं
Mir Taqi Mir
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Mohsin Naqvi
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Faiz Ahmad Faiz
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एक से एक है ग़ारत-गर-ए-ईमान यहाँ
वो भी हमें सरगिराँ मिले हैं
हमें ख़बर है वो मेहमान एक रात का है
क़रीब-ए-नज़'अ भी क्यूँ चैन ले सके कोई
बड़े ख़तरे में है हुस्न-ए-गुलिस्ताँ हम न कहते थे
कैसे जीते हैं ये किस तरह जिए जाते हैं
उस मुसाफ़िर की नक़ाहत का ठिकाना क्या है
चैन अब मुझ को तह-ए-दाम तो लेने देते
दुश्मन गए तो कशमकश-ए-दोस्ती गई
छुप छुप के अब न देख वफ़ा के मक़ाम से
मेरा होना भी कोई होना है