कितने अंजान हैं क्या सादगी से पूछते हैं
कहिए क्या मेरी किसी बात पे रोना आया
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मिरी दास्तान-ए-हसरत वो सुना सुना के रोए
अपनी वुसअत में खो चुका हूँ मैं
मग़रूर थे अपनी ज़ात पर हम
शोर दिन को नहीं सोने देता
आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
तुम ने दीवाना बनाया मुझ को
'सैफ़' पी कर भी तिश्नगी न गई
आज की रात वो आए हैं बड़ी देर के ब'अद
अब वो सौदा नहीं दीवानों में
चलो मय-कदे में बसेरा ही कर लो
वफ़ा अंजाम होती जा रही है