कोई ऐसा अहल-ए-दिल हो कि फ़साना-ए-मोहब्बत
मैं उसे सुना के रोऊँ वो मुझे सुना के रोए
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बे-ख़ुदी ले उड़ी हवास कहीं
फैल रहे हैं वक़्त के साए
मग़रूर थे अपनी ज़ात पर हम
दिल-ए-वीराँ को देखते क्या हो
क्यूँ उजड़ जाती है दिल की महफ़िल
वस्ल की बात और ही कुछ थी
उम्र गुज़री मिरी शीरीनी-ए-गुफ़्तार के साथ
आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
जब तसव्वुर में न पाएँगे तुम्हें
तुम को बेगाने भी अपनाते हैं मैं जानता हूँ
क़रीब मौत खड़ी है ज़रा ठहर जाओ
शायद तुम्हारे साथ भी वापस न आ सकें