फूल इस ख़ाक-दाँ के हम भी हैं
मुद्दई दो जहाँ के हम भी हैं
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शायद तुम्हारे साथ भी वापस न आ सकें
रुख़ पे यूँ झूम कर वो लट जाए
एक उदासी दिल पर छाई रहती है
क़ज़ा का वक़्त रुख़्सत की घड़ी है
खोल कर इन सियाह बालों को
जब वज्ह-ए-सुकून-ए-जाँ ठहर जाए
रात गुज़रे न दर्द-ए-दिल ठहरे
जी दर्द से है निढाल अपना
ग़म-ए-दिल किसी से छुपाना पड़ेगा
आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
पास आए तो और हो गए दूर
आज की रात वो आए हैं बड़ी देर के ब'अद