'सैफ़' अंदाज़-ए-बयाँ रंग बदल देता है
वर्ना दुनिया में कोई बात नई बात नहीं
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तुम को बेगाने भी अपनाते हैं मैं जानता हूँ
तिरी नज़र से ज़माने बदलते रहते हैं
फैल रहे हैं वक़्त के साए
जिस दिन से भुला दिया है तू ने
क़ज़ा का वक़्त रुख़्सत की घड़ी है
क्या मंज़िल-ए-ग़म सिमट गई है
एक उदासी दिल पर छाई रहती है
ज़ोहद किस किस ने लुटाए हैं तुम्हें क्या मालूम
क्या क़यामत है हिज्र के दिन भी
हम को तो गर्दिश-ए-हालात पे रोना आया
मग़रूर थे अपनी ज़ात पर हम