कोई इम्काँ तो न था उस का मगर चाहता था
कोई इम्काँ तो न था उस का मगर चाहता था
कब से कोई किसी दीवार में दर चाहता था
ज़ब्त के पेड़ ने गुल और खिलाए अब के
और ही तर्ज़ का ये दिल तो समर चाहता था
आख़िरी मंज़िल-ए-तसकीन-ए-दिल-ओ-जान तलक
मंज़िलें राह न काटें ये सफ़र चाहता था
चंद लम्हों के लिए जड़ को वो सैराब करे
और शिताबी से निकल आए समर चाहता था
कितना कम-फ़हम था कोई कि जला कर उन को
ज़िंदगी पर मिरे ख़्वाबों का असर चाहता था
ये अलग बात कि तेशे से शनासाई न थी
वारना जान कोई तुझ पे मगर चाहता था
हिज्र एहसास को शल भी तो किए रहता है
असर उस का कोई बा-रंग-ए-दिगर चाहता था
उस को सायों के तआक़ुब में लिखा था रहना
दर्द आँगन में घना एक शजर चाहता था
एक गहरी सी नज़र रौज़न-ए-दिल के अंदर
दश्त-ए-एहसास कहाँ शम्स ओ क़मर चाहता था
आँधियाँ दोश पे ले कर वो उड़ा फिरता हो
और सलामत भी रहे काँच-नगर चाहता था
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