गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का
लहू में ग़र्क़ सफ़ीना हो आश्नाई का
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जिस दम वो सनम सवार होवे
बे-वज्ह नईं है आइना हर बार देखना
कोताह न उम्र-ए-मय-परस्ती कीजे
समझे थे हम जो दोस्त तुझे ऐ मियाँ ग़लत
ले दीदा-ए-तर जिधर गए हम
सदमा हर-चंद तिरे जौर से जाँ पर आया
हस्ती को तिरी बस है मियाँ गुल की इशारत
तुम कान धर सुनो न सुनो उस के हर्फ़ को
'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
करता हूँ तेरे ज़ुल्म से हर बार अल-ग़ियास
हिन्दू हैं बुत-परस्त मुसलमाँ ख़ुदा-परस्त