गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
ऐ ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-चमन कुछ तो इधर भी
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किस मुँह से फिर तू आप को कहता है इश्क़-बाज़
कीजिए न असीरी में अगर ज़ब्त नफ़स को
बेचैन जो रखती है तुम्हें चाह किसू की
तुझ क़ैद से दिल हो कर आज़ाद बहुत रोया
फ़िराक़-ए-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
इस कश्मकश से दाम के क्या काम था हमें
जब नज़र उस की आन पड़ती है
बातिल है हम से दावा शायर को हम-सरी का
कहियो सबा सलाम हमारा बहार से
दिखाऊँगा तुझे ज़ाहिद उस आफ़त-ए-दीं को
बहार-ए-बाग़ हो मीना हो जाम-ए-सहबा हो