है मुद्दतों से ख़ाना-ए-ज़ंजीर बे-सदा
मालूम ही नहीं कि दिवाने किधर गए
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हिन्दू हैं बुत-परस्त मुसलमाँ ख़ुदा-परस्त
मत पूछ ये कि रात कटी क्यूँके तुझ बग़ैर
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
बादशाहत दो जहाँ की भी जो होवे मुझ को
न जिया तेरी चश्म का मारा
दिल मत टपक नज़र से कि पाया न जाएगा
गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का
गदा दस्त-ए-अहल-ए-करम देखते हैं
कहते हैं लोग यार का अबरू फड़क गया
आदम का जिस्म जब कि अनासिर से मिल बना
नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है
ग़ुंचे से मुस्कुरा के उसे ज़ार कर चले