मत पूछ ये कि रात कटी क्यूँके तुझ बग़ैर
इस गुफ़्तुगू से फ़ाएदा प्यारे गुज़र गई
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ज़ालिम न मैं कहा था कि इस ख़ूँ से दरगुज़र
दिल के टुकड़ों को बग़ल-गीर लिए फिरता हूँ
समझे थे हम जो दोस्त तुझे ऐ मियाँ ग़लत
मस्त-ए-सहर ओ तौबा-कुनाँ शाम का हूँ मैं
है मुद्दतों से ख़ाना-ए-ज़ंजीर बे-सदा
साक़ी हमारी तौबा तुझ पर है क्यूँ गवारा
जिस रोज़ किसी और पे बेदाद करोगे
दिलदार उस को ख़्वाह दिल-आज़ार कुछ कहो
मगर वो दीद को आया था बाग़ में गुल के
अपने का है गुनाह बेगाने ने क्या किया
बातिल है हम से दावा शायर को हम-सरी का
गदा दस्त-ए-अहल-ए-करम देखते हैं