मौज-ए-नसीम आज है आलूदा गर्द से
दिल ख़ाक हो गया है किसी बे-क़रार का
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तिरा ख़त आने से दिल को मेरे आराम क्या होगा
मै-कशाँ रूह हमारी भी कभी शाद करो
ग़रज़ कुफ़्र से कुछ न दीं से है मतलब
अपने का है गुनाह बेगाने ने क्या किया
कोताह न उम्र-ए-मय-परस्ती कीजे
बहार-ए-बाग़ हो मीना हो जाम-ए-सहबा हो
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
दिल में तिरे जो कोई घर कर गया
'सौदा' जहाँ में आ के कोई कुछ न ले गया
कब दिल शिकस्त-गाँ से कर अर्ज़-ए-हाल आया
ये रंजिश में हम को है बे-इख़्तियारी
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे