कोताह न उम्र-ए-मय-परस्ती कीजे
ज़ुल्फ़ों से तिरी दराज़-दस्ती कीजे
साक़ी न हो जो शराब है आज वो अब्र
पानी पी पी के फ़ाक़ा-मस्ती कीजे
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अपने का है गुनाह बेगाने ने क्या किया
फ़िक्र-ए-मआश इश्क़-ए-बुताँ याद-ए-रफ़्तगाँ
जिस रोज़ किसी और पे बेदाद करोगे
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
अबस तू घर बसाता है मिरी आँखों में ऐ प्यारे
मैं ने तुम को दिल दिया और तुम ने मुझे रुस्वा किया
नौबत-ए-क़ैस हो चुकी आख़िर
देखूँ हूँ यूँ मैं उस सितम-ईजाद की तरफ़
या रब कहीं से गर्मी-ए-बाज़ार भेज दे
जो गुल है याँ सो उस गुल-ए-रुख़्सार साथ है
ग़रज़ कुफ़्र से कुछ न दीं से है मतलब
हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का