न जिया तेरी चश्म का मारा
न तिरी ज़ुल्फ़ का बँधा छूटा
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'सौदा' जो बे-ख़बर है वही याँ करे है ऐश
कोताह न उम्र-ए-मय-परस्ती कीजे
नहीं है घर कोई ऐसा जहाँ उस को न देखा हो
कहते हैं लोग यार का अबरू फड़क गया
ज़ाहिद सभी हैं नेमत-ए-हक़ जो है अक्ल-ओ-शर्ब
नौबत-ए-क़ैस हो चुकी आख़िर
आदम का जिस्म जब कि अनासिर से मिल बना
बे-वज्ह नईं है आइना हर बार देखना
ग़ुंचे से मुस्कुरा के उसे ज़ार कर चले
साक़ी हमारी तौबा तुझ पर है क्यूँ गवारा
मगर वो दीद को आया था बाग़ में गुल के
हर आन आ मुझी को सताते हो नासेहो