साक़ी हमारी तौबा तुझ पर है क्यूँ गवारा
मिन्नत नहीं तो ज़ालिम तर्ग़ीब या इशारा
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ये रंजिश में हम को है बे-इख़्तियारी
न जिया तेरी चश्म का मारा
ऐ शैख़-ए-हरम तक तुझे आना जाना
आशिक़ की भी कटती हैं क्या ख़ूब तरह रातें
बदला तिरे सितम का कोई तुझ से क्या करे
कोताह न उम्र-ए-मय-परस्ती कीजे
नौबत-ए-क़ैस हो चुकी आख़िर
दिल मत टपक नज़र से कि पाया न जाएगा
नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है
गर तुझ में है वफ़ा तो जफ़ाकार कौन है
कीजिए न असीरी में अगर ज़ब्त नफ़स को
हस्ती को तिरी बस है मियाँ गुल की इशारत