साक़ी गई बहार रही दिल में ये हवस
तू मिन्नतों से जाम दे और मैं कहूँ कि बस
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कोताह न उम्र-ए-मय-परस्ती कीजे
वे सूरतें इलाही किस मुल्क बस्तियाँ हैं
दामन सबा न छू सके जिस शह-सवार का
बदला तिरे सितम का कोई तुझ से क्या करे
दिल ले के हमारा जो कोई तालिब-ए-जाँ है
बादशाहत दो जहाँ की भी जो होवे मुझ को
देखूँ हूँ यूँ मैं उस सितम-ईजाद की तरफ़
अम्मामे को उतार के पढ़ीयो नमाज़ शैख़
कब दिल शिकस्त-गाँ से कर अर्ज़-ए-हाल आया
कहियो सबा सलाम हमारा बहार से
ग़रज़ कुफ़्र से कुछ न दीं से है मतलब
गर कीजिए इंसाफ़ तो की ज़ोर वफ़ा मैं