'सौदा' हुए जब आशिक़ क्या पास आबरू का
सुनता है ऐ दिवाने जब दिल दिया तो फिर क्या
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इस कश्मकश से दाम के क्या काम था हमें
हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
अम्मामे को उतार के पढ़ीयो नमाज़ शैख़
'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
या रब कहीं से गर्मी-ए-बाज़ार भेज दे
चेहरे पे न ये नक़ाब देखा
किसे ताक़त है शरह-ए-शौक़ उस मज्लिस में करने की
'सौदा' शेर में है बड़ाई तुझ को
मक़्दूर नहीं उस की तजल्ली के बयाँ का
दिलदार उस को ख़्वाह दिल-आज़ार कुछ कहो
बदला तिरे सितम का कोई तुझ से क्या करे