बादशाहत दो जहाँ की भी जो होवे मुझ को
तेरे कूचे की गदाई से न खो दे मुझ को
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कहते थे हम न देख सकें रोज़-ए-हिज्र को
'सौदा' जो बे-ख़बर है वही याँ करे है ऐश
मस्त-ए-सहर ओ तौबा-कुनाँ शाम का हूँ मैं
जो गुज़री मुझ पे मत उस से कहो हुआ सो हुआ
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
न कर 'सौदा' तू शिकवा हम से दिल की बे-क़रारी का
ज़ालिम न मैं कहा था कि इस ख़ूँ से दरगुज़र
'सौदा' हुए जब आशिक़ क्या पास आबरू का
गर हो शराब ओ ख़ल्वत ओ महबूब-ए-ख़ूब-रू
कौन किसी का ग़म खाता है
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
हस्ती को तिरी बस है मियाँ गुल की इशारत