कहते थे हम न देख सकें रोज़-ए-हिज्र को
पर जो ख़ुदा दिखाए सो नाचार देखना
Faiz Ahmad Faiz
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बहार-ए-बाग़ हो मीना हो जाम-ए-सहबा हो
दिल मत टपक नज़र से कि पाया न जाएगा
ने ग़रज़ कुफ़्र से रखते हैं न इस्लाम से काम
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
मैं ने तुम को दिल दिया और तुम ने मुझे रुस्वा किया
जो गुज़री मुझ पे मत उस से कहो हुआ सो हुआ
दिल में तिरे जो कोई घर कर गया
हर आन आ मुझी को सताते हो नासेहो
'सौदा' तिरी फ़रियाद से आँखों में कटी रात
हस्ती को तिरी बस है मियाँ गुल की इशारत
ग़ुंचे से मुस्कुरा के उसे ज़ार कर चले