कैफ़िय्यत-ए-चश्म उस की मुझे याद है 'सौदा'
साग़र को मिरे हाथ से लीजो कि चला मैं
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हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
इश्क़ से तो नहीं हूँ मैं वाक़िफ़
'सौदा' ख़ुदा के वास्ते कर क़िस्सा मुख़्तसर
'सौदा' जहाँ में आ के कोई कुछ न ले गया
काम आई कोहकन की मशक़्क़त न इश्क़ में
'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
अम्मामे को उतार के पढ़ीयो नमाज़ शैख़
मैं ने तुम को दिल दिया और तुम ने मुझे रुस्वा किया
दिल मत टपक नज़र से कि पाया न जाएगा
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
तुझ बिन बहुत ही कटती है औक़ात बे-तरह
गर कीजिए इंसाफ़ तो की ज़ोर वफ़ा मैं