फ़िराक़-ए-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
इलाही हो न वतन से कोई ग़रीब जुदा
Rahat Indori
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ऐ आह तिरी क़द्र असर ने तो न जानी
बे-सबाती ज़माने की नाचार
देखे बुलबुल जो यार की सूरत
ये रंजिश में हम को है बे-इख़्तियारी
क्या करूँगा ले के वाइज़ हाथ से हूरों के जाम
ले दीदा-ए-तर जिधर गए हम
ऐ शैख़-ए-हरम तक तुझे आना जाना
चेहरे पे न ये नक़ाब देखा
नौबत-ए-क़ैस हो चुकी आख़िर
बुलबुल ने जिसे जा के गुलिस्तान में देखा
अम्मामे को उतार के पढ़ीयो नमाज़ शैख़
देखूँ हूँ यूँ मैं उस सितम-ईजाद की तरफ़