वे सूरतें इलाही किस मुल्क बस्तियाँ हैं
अब देखने को जिन के आँखें तरसतियाँ हैं
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'सौदा' जो बे-ख़बर है वही याँ करे है ऐश
यूँ देख मिरे दीदा-ए-पुर-आब की गर्दिश
ज़ालिम न मैं कहा था कि इस ख़ूँ से दरगुज़र
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
अम्मामे को उतार के पढ़ीयो नमाज़ शैख़
क्या ज़िद है मिरे साथ ख़ुदा जाने वगरना
इश्क़ से तो नहीं हूँ मैं वाक़िफ़
हिन्दू हैं बुत-परस्त मुसलमाँ ख़ुदा-परस्त
फ़िराक़-ए-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
दामन सबा न छू सके जिस शह-सवार का
जो गुल है याँ सो उस गुल-ए-रुख़्सार साथ है
ले दीदा-ए-तर जिधर गए हम