इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
दो रोज़ की महफ़िल है इक उम्र की तन्हाई
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एक शोला सा उठा था दिल में
ये फूल चमन को क्या सँवारें साक़ी
तिरी महफ़िल में सोज़-ए-जावेदानी ले के आया हूँ
आँखों में ख़ुमार-ए-शौक़-अफ़ज़ा ले कर
अफ़्साना-हा-ए-दर्द सुनाते चले गए
कितनी हंगामा-ख़ू तमन्नाएँ
जवानी के ज़माने याद आए
ग़म-नसीबों को किसी ने तो पुकारा होगा
हर ज़र्रा उभर के कह रहा है
कुछ और गुमरही-ए-दिल का राज़ क्या होगा
ख़ामोशी कलाम हो गई है
अफ़्साना-ए-ग़म है शादमानी मेरी