इक ख़ौफ़-ए-बे-पनाह है आँखों के आर-पार
तारीकियों में डूबता लम्हा है सामने
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क्यूँ मेरे दुख चुनते हो
शनाख़्त मिट गई चेहरे पे गर्द इतनी थी
तुझ से बिछड़ूँ तो ये ख़दशा है अकेला हो जाऊँ
शायरी मज़हर-ए-अहवाल-ए-दरूं है यूँ है
कुछ नहीं है तो ये अंदेशा ये डर कैसा है
गुज़रते लम्हों के दिल में क्या है हमें पता है
जब तू मुझ से रूठ गया था
उम्र भर चल के भी पाई नहीं मंज़िल हम ने
इस घनी शब का सवेरा नहीं आने वाला
मुद्दत हुई राहत भरा मंज़र नहीं उतरा
मैं वाक़िफ़ हूँ तिरी चुप-गोइयों से