मैं वाक़िफ़ हूँ तिरी चुप-गोइयों से
समझ लेता हूँ तेरी अन-कही भी
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वो सर से पाँव तलक चाहतों में डूबा था
कोई दिया किसी चौखट पे अब न जलने का
उम्र भर चल के भी पाई नहीं मंज़िल हम ने
शनाख़्त मिट गई चेहरे पे गर्द इतनी थी
न ढलती शाम न ठंडी सहर में रक्खा है
बीमार सा है जिस्म-ए-सहर काँप रहा है
तुझ से बिछड़ूँ तो ये ख़दशा है अकेला हो जाऊँ
दश्त में घास का मंज़र भी मुझे चाहिए है
दश्त में ये जाँ-फ़ज़ाँ मंज़र कहाँ से आ गए
गुज़रते लम्हों के दिल में क्या है हमें पता है
इस घनी शब का सवेरा नहीं आने वाला