हम उस धरती के बाशिंदे थे 'ताबिश'
कि जिस का कोई मुस्तक़बिल नहीं था
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न देखें तो सुकूँ मिलता नहीं है
एक बुज़ुर्ग शायर परिंदे का तजरबा
ज़माने से अलग थी मेरी दुनिया
जिस ने इंसाँ से मोहब्बत ही नहीं की 'ताबिश'
कब खुलेगा कि फ़लक पार से आगे क्या है
क्या कहूँ वो किधर नहीं रहता
कोई इज़हार कर सकता है कैसे
कहाँ आ गई हो
देव-मालाएँ सच्ची होती हैं
हमारा डूबना मुश्किल नहीं था
कई पड़ाव थे मंज़िल की राह में 'ताबिश'
अपनी साल-गिरह पर