मैं ने बख़्श दी तिरी क्यूँ ख़ता तुझे इल्म है
तुझे दी है कितनी कड़ी सज़ा तुझे इल्म है
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नहीं उड़ाऊँगा ख़ाक रोया नहीं करूँगा
बहाऊँगा न मैं आँसू न मुस्कराउँगा
तुझे मैं अपना नहीं समझता इसी लिए तो
हम दुनिया से जब तंग आया करते हैं
उतार लफ़्ज़ों का इक ज़ख़ीरा ग़ज़ल को ताज़ा ख़याल दे दे
मिरा बातिन मुझे हर पल नई दुनिया दिखाता है
वफ़ा का ज़िक्र छिड़ा था कि रात बीत गई
हिज्र बख़्शा कभी विसाल दिया
ज़िंदगी भर की रियाज़त मिरी बे-कार गई
ये लोग करते हैं मंसूब जो बयाँ तुझ से
वो जो मुमकिन न हो मुमकिन ये बना देता है