मकाँ से होगा कभी ला-मकान से होगा
मिरा ये म'अरका दोनों जहान से होगा
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सफ़र में होती है पहचान कौन कैसा है
मैं ने बख़्श दी तिरी क्यूँ ख़ता तुझे इल्म है
मोती नहीं हूँ रेत का ज़र्रा तो मैं भी हूँ
उतार लफ़्ज़ों का इक ज़ख़ीरा ग़ज़ल को ताज़ा ख़याल दे दे
तुम कोई इस से तवक़्क़ो' न लगाना मरे दोस्त
ज़िंदगी जंग है आसाब की और ये भी सुनो
ये जंग जीत है किस की ये हार किस की है
वो कम-सुख़न न था पर बात सोच कर करता
बहार आने की उम्मीद के ख़ुमार में था