सफ़र में होती है पहचान कौन कैसा है
ये आरज़ू थी मिरे साथ तू सफ़र करता
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ज़िंदगी भर की रियाज़त मिरी बे-कार गई
मैं ने बख़्श दी तिरी क्यूँ ख़ता तुझे इल्म है
ये लोग करते हैं मंसूब जो बयाँ तुझ से
हिज्र बख़्शा कभी विसाल दिया
सूरज के उस जानिब बसने वाले लोग
उतार लफ़्ज़ों का इक ज़ख़ीरा ग़ज़ल को ताज़ा ख़याल दे दे
मकाँ से होगा कभी ला-मकान से होगा
नहीं उड़ाऊँगा ख़ाक रोया नहीं करूँगा
वो जो मुमकिन न हो मुमकिन ये बना देता है
मोती नहीं हूँ रेत का ज़र्रा तो मैं भी हूँ
एक मंज़िल है एक जादा है