मिरी तवज्जोह फ़क़त मिरे काम पर रहेगी
मैं ख़ुद को साबित करूँगा दावा नहीं करूँगा
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मैं ने बख़्श दी तिरी क्यूँ ख़ता तुझे इल्म है
मकाँ से होगा कभी ला-मकान से होगा
ज़िंदगी भर की रियाज़त मिरी बे-कार गई
फिर जो करने लगा है तू व'अदा
उतार लफ़्ज़ों का इक ज़ख़ीरा ग़ज़ल को ताज़ा ख़याल दे दे
वो कम-सुख़न न था पर बात सोच कर करता
ख़ुशी ज़रूर थी 'तैमूर' दिन निकलने की
हम दुनिया से जब तंग आया करते हैं
तुझे मैं अपना नहीं समझता इसी लिए तो
बहाऊँगा न मैं आँसू न मुस्कराउँगा