शौक़ कहता है कि हर जिस्म को सज्दा कीजे
आँख कहती है कि तू ने अभी देखा क्या है
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दिल की बात न मानी होती इश्क़ किया क्यूँ पीरी में
दुख झेलो तो जी कड़ा ही रखना
अच्छा है कि सिर्फ़ इश्क़ कीजे
जो भी नरमी है ख़यालों में न होने से है
था पस-ए-मिज़्गान-तर इक हश्र बरपा और भी
बजा कि दरपय-ए-आज़ार चश्म-ए-तर है बहुत
इक तीर नहीं क्या तिरी मिज़्गाँ की सफ़ों में
दिल था पहलू में तो कहते थे तमन्ना क्या है
काश इक शब के लिए ख़ुद को मयस्सर हो जाएँ
पाँव में लिपटी हुई है सब के ज़ंजीर-ए-अना
वो अव्वलीं दर्द की गवाही सजी हुई बज़्म-ए-ख़्वाब जैसे