अक्सर हुआ है ये कि ख़ुद अपनी तलाश में
आगे निकल गए हैं हद-ए-मा-सिवा से भी
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बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
कर अपनी बात कि प्यारे किसी की बात से क्या
तारी है हर तरफ़ जो ये आलम सुकूत का
वही दिया कि थीं आजिज़ हवाएँ जिन से 'उमर'
हैं सारे जुर्म जब अपने हिसाब में लिखना
वो चुप लगी है कि हँसता है और न रोता है
चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
हो के उस कूचे से आई तो सितम ढा गई क्या
मुझे मेहमाँ ही जानो रात भर का
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया