बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
दिल की घनी बस्ती में यारो आन बसे हैं चोर बहुत
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जिस आईने में भी झाँका नज़र उसी से मिली
छुप कर न रह सकेगा वो हम से कि उस को हम
हर इक का दर्द उसी आशुफ़्ता-सर में तन्हा था
हो के उस कूचे से आई तो सितम ढा गई क्या
उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन
वो चुप लगी है कि हँसता है और न रोता है
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया
मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
हैं सारे जुर्म जब अपने हिसाब में लिखना
तारी है हर तरफ़ जो ये आलम सुकूत का
मुझे मेहमाँ ही जानो रात भर का