जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया
वो अपने फ़न में मैं अपने हुनर में तन्हा था
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छुप कर न रह सकेगा वो हम से कि उस को हम
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर
वो चुप लगी है कि हँसता है और न रोता है
लड़ जाते हैं सरों पे मचलती क़ज़ा से भी
हैं सारे जुर्म जब अपने हिसाब में लिखना
उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन
हो के उस कूचे से आई तो सितम ढा गई क्या
चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
हर इक का दर्द उसी आशुफ़्ता-सर में तन्हा था
अक्सर हुआ है ये कि ख़ुद अपनी तलाश में
मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन