उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन
वो इक दिया जो कभी बाम-ओ-दर में तन्हा था
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बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
अक्सर हुआ है ये कि ख़ुद अपनी तलाश में
बुरा सही मैं प नीयत बुरी नहीं मेरी
मुझे मेहमाँ ही जानो रात भर का
हो के उस कूचे से आई तो सितम ढा गई क्या
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया
तारी है हर तरफ़ जो ये आलम सुकूत का
चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
जिस आईने में भी झाँका नज़र उसी से मिली
लड़ जाते हैं सरों पे मचलती क़ज़ा से भी