बुरा सही मैं प नीयत बुरी नहीं मेरी
मिरे गुनाह भी कार-ए-सवाब में लिखना
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हैं सारे जुर्म जब अपने हिसाब में लिखना
अक्सर हुआ है ये कि ख़ुद अपनी तलाश में
तारी है हर तरफ़ जो ये आलम सुकूत का
मुझे मेहमाँ ही जानो रात भर का
मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
छुप कर न रह सकेगा वो हम से कि उस को हम
कर अपनी बात कि प्यारे किसी की बात से क्या
बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर
चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
जिस आईने में भी झाँका नज़र उसी से मिली