चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
हमें तो खा गया साया शजर का
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जिस आईने में भी झाँका नज़र उसी से मिली
हो के उस कूचे से आई तो सितम ढा गई क्या
मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
वही दिया कि थीं आजिज़ हवाएँ जिन से 'उमर'
तारी है हर तरफ़ जो ये आलम सुकूत का
लड़ जाते हैं सरों पे मचलती क़ज़ा से भी
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर
बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया
छुप कर न रह सकेगा वो हम से कि उस को हम
कर अपनी बात कि प्यारे किसी की बात से क्या