मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
मुसाफ़िरों की मोहब्बत का ए'तिबार न कर
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वही दिया कि थीं आजिज़ हवाएँ जिन से 'उमर'
तारी है हर तरफ़ जो ये आलम सुकूत का
बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
वो चुप लगी है कि हँसता है और न रोता है
बुरा सही मैं प नीयत बुरी नहीं मेरी
लड़ जाते हैं सरों पे मचलती क़ज़ा से भी
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया
अक्सर हुआ है ये कि ख़ुद अपनी तलाश में
चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन