छुप कर न रह सकेगा वो हम से कि उस को हम
पहचान लेंगे उस की किसी इक अदा से भी
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अक्सर हुआ है ये कि ख़ुद अपनी तलाश में
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर
बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
हैं सारे जुर्म जब अपने हिसाब में लिखना
उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन
हर इक का दर्द उसी आशुफ़्ता-सर में तन्हा था
मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
जिस आईने में भी झाँका नज़र उसी से मिली
चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
वो चुप लगी है कि हँसता है और न रोता है
बुरा सही मैं प नीयत बुरी नहीं मेरी