सफ़र की हद थी जो रात थी
कहीं आगे अर्ज़-ए-सबात थी
जो अँधेरा था बे-कनार था
कोई रौशनी बे-जिहात थी
जो सभी दयार गिरा गई
वही बाद-ए-शहर-ए-सिफ़ात थी
ये मिरा वजूद चमक उठा
मिरी रौशनी मिरे सात थी
जो न खुल सका तिरा भेद था
जो न हो सकी मिरी बात थी
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जब भी पेड़ों पे समर जागता है
ज़ेहन के कैनवस को फैला कर