ज़ेहन के कैनवस को फैला कर
ज़ेहन के कैनवस को फैला कर
तू हर इक मसअले पे सोचा कर
मेरे काँधे पे आज उदासी फिर
सो गई अपने बाल बिखरा कर
यूँ बिछड़ना तो कोई बात नहीं
ख़ूब रोया था वो भी घर जा कर
मेरी जलती उदास आँखों पर
कभी चुपके से होंट रक्खा कर
आगे इक बाग़ का जज़ीरा है
फूल तोड़ेंगे नाव ठहरा कर
अपने हालात से निबट न सका
ख़ुद-कुशी कर गया वो घबरा कर
सब अक़ीदे ही बे-असास हुए
आगही और शुऊ'र को पा कर
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