शाम के दिन रात

शाम में ग़ार था

ग़ार में रात थी

रात के नम अंधेरे में इक अजनबियत का एहसास था

चलती साँसों की हिलती हुई सतह पर

वक़्त की नाव ठहरी हुई थी

सनसनाते हुए नम अंधेरे में पौरें धड़कने लगीं

ग़ार में महव-ए-परवाज़ पलकों के पंछी उलझने लगे

ग़ार में शाम थी

चंद लम्हों में सदियाँ बसर कर के जब

ग़ार के दौर से हम ज़माने में आए

तो ढलते हुए दिन की गीली चमक पत्थरों पर जमी थी

मुड़ के देखा तो पलकों को परवा लगी

और मख़मूर आँखों को सपना लगा

गूँजते ग़ार का नम अंधेरा हमें अपना अपना लगा

ग़ार ने कुछ तो जाने दिया कुछ हमें रख लिया था

निहायत सुबुकसार थे

ऐसे चलते थे जैसे ज़मीं के मकीं

कुर्रा-ए-माह पर चल रहे हों

शाम के पेड़ पर इक परिंदा

गजरतान भेरों में गाने लगा

वक़्त का साँवला पेड़ है

पेड़ के मल्गजे पात हैं

दिल के अपने ज़मान ओ मकाँ

शाम के अपने दिन रात हैं

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In Hindi By Famous Poet Waheed Ahmad. is written by Waheed Ahmad. Complete Poem in Hindi by Waheed Ahmad. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.