अब्र आँखों से उठे हैं तिरा दामन मिल जाए
हुक्म हो तेरा तो बरसात मुकम्मल हो जाए
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दश्त की उड़ती हुई रेत पे लिख देते हैं लोग
तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए
जो सुनना चाहो तो बोल उट्ठेंगे अँधेरे भी
याद आई न कभी बे-सर-ओ-सामानी में
उम्र भर मिलते रहे फिर भी न मिलने पाए
पत्थरों का मुग़न्नी
खंडर आसेब और फूल
रहे वो ज़िक्र जो लब-हा-ए-आतिशीं से चले
उम्र को करती हैं पामाल बराबर यादें
आगही की दुआ
माँगने वालों को क्या इज़्ज़त ओ रुस्वाई से