अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे
सुकूत ऐसा नहीं है जो कुछ सुनाई न दे
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उम्र को करती हैं पामाल बराबर यादें
इक दश्त-ए-बे-अमाँ का सफ़र है चले-चलो
बिछड़े हुए ख़्वाब आ के पकड़ लेते हैं दामन
रात भर ख़्वाब के दरिया में सवेरा देखा
जिस को माना था ख़ुदा ख़ाक का पैकर निकला
उम्र भर मिलते रहे फिर भी न मिलने पाए
दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है
मस्जिद हो मदरसा हो कि मज्लिस कि मय-कदा
ज़ेर-ए-पा अब न ज़मीं है न फ़लक है सर पर
माँगने वालों को क्या इज़्ज़त ओ रुस्वाई से
ख़ुश्बू है कभी गुल है कभी शम्अ कभी है
तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए