बाम ओ दर ओ दीवार को ही घर नहीं कहते
तुम घर में नहीं हो तो मकाँ है भी नहीं भी
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अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे
रुख़्सत-ए-नुत्क़ ज़बानों को रिया क्या देगी
हर एक लम्हा किया क़र्ज़ ज़िंदगी का अदा
कतरा के गुल्सिताँ से जो सू-ए-क़फ़स चले
बिछड़े हुए ख़्वाब आ के पकड़ लेते हैं दामन
नींद बन कर मिरी आँखों से मिरे ख़ूँ में उतर
अब्र आँखों से उठे हैं तिरा दामन मिल जाए
हम को मंज़ूर तुम्हारा जो न पर्दा होता
क्यूँ तिरी क़ंद-लबी ख़ुश-सुख़नी याद आई
आँख जो नम हो वही दीदा-ए-तर मेरा है
मौत की जुस्तुजू