बे-बरसे गुज़र जाते हैं उमडे हुए बादल
जैसे उन्हें मेरा ही पता याद नहीं है
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रात भर ख़्वाब के दरिया में सवेरा देखा
लिपटी हुई फिरती है नसीम उन की क़बा से
तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए
आँख जो नम हो वही दीदा-ए-तर मेरा है
तवाना ख़ूबसूरत जिस्म
बुत बनाने पूजने फिर तोड़ने के वास्ते
क्यूँ तिरी क़ंद-लबी ख़ुश-सुख़नी याद आई
माँगने वालों को क्या इज़्ज़त ओ रुस्वाई से
इक दश्त-ए-बे-अमाँ का सफ़र है चले-चलो
अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे
खंडर आसेब और फूल
याद आई न कभी बे-सर-ओ-सामानी में