याद आई न कभी बे-सर-ओ-सामानी में
देख कर घर को ग़रीब-उल-वतनी याद आई
Faiz Ahmad Faiz
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अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे
बिछड़े हुए ख़्वाब आ के पकड़ लेते हैं दामन
बाम ओ दर ओ दीवार को ही घर नहीं कहते
पत्थरों का मुग़न्नी
मावरा
लेते हैं तिरा नाम ही यूँ जागते सोते
किरनों से तराशा हुआ इक नूर का पैकर
उम्र को करती हैं पामाल बराबर यादें
तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए
ज़बान-ए-ख़ल्क़ पे आया तो इक फ़साना हुआ
मौत की जुस्तुजू