किरनों से तराशा हुआ इक नूर का पैकर
शरमाया हुआ ख़्वाब की चौखट पे खड़ा है
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पत्थरों का मुग़न्नी
कतरा के गुल्सिताँ से जो सू-ए-क़फ़स चले
आग अपने ही दामन की ज़रा पहले बुझा लो
उम्र को करती हैं पामाल बराबर यादें
इक दश्त-ए-बे-अमाँ का सफ़र है चले-चलो
बुत बनाने पूजने फिर तोड़ने के वास्ते
मिरी उड़ान अगर मुझ को नीचे आने दे
दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है
याद आई न कभी बे-सर-ओ-सामानी में
दश्त की उड़ती हुई रेत पे लिख देते हैं लोग
रुख़्सत-ए-नुत्क़ ज़बानों को रिया क्या देगी
तुम गए साथ उजालों का भी झूटा ठहरा