ख़ुश्क आँखों से उठी मौज तो दुनिया डूबी
हम जिसे समझे थे सहरा वो समुंदर निकला
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बे-बरसे गुज़र जाते हैं उमडे हुए बादल
इक दश्त-ए-बे-अमाँ का सफ़र है चले-चलो
सहराओं में दरिया भी सफ़र भूल गया है
हम को मंज़ूर तुम्हारा जो न पर्दा होता
क्यूँ तिरी क़ंद-लबी ख़ुश-सुख़नी याद आई
हम ने देखा है मोहब्बत का सज़ा हो जाना
मौत की जुस्तुजू
बाम ओ दर ओ दीवार को ही घर नहीं कहते
मावरा
उन को रोज़ इक ताज़ा हीला एक ख़ंजर चाहिए
ज़ेर-ए-पा अब न ज़मीं है न फ़लक है सर पर
ठहरी है तो इक चेहरे पे ठहरी रही बरसों