लेते हैं तिरा नाम ही यूँ जागते सोते
जैसे कि हमें अपना ख़ुदा याद नहीं है
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बिछड़े हुए ख़्वाब आ के पकड़ लेते हैं दामन
दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है
तवाना ख़ूबसूरत जिस्म
सफ़र ही बाद-ए-सफ़र है तो क्यूँ न घर जाऊँ
ज़ेर-ए-पा अब न ज़मीं है न फ़लक है सर पर
कतरा के गुल्सिताँ से जो सू-ए-क़फ़स चले
हज़ारों साल सफ़र कर के फिर वहीं पहुँचे
उम्र को करती हैं पामाल बराबर यादें
बे-बरसे गुज़र जाते हैं उमडे हुए बादल
हर एक लम्हा किया क़र्ज़ ज़िंदगी का अदा
उम्र भर मिलते रहे फिर भी न मिलने पाए
ख़ुश्बू है कभी गुल है कभी शम्अ कभी है