माँगने वालों को क्या इज़्ज़त ओ रुस्वाई से
देने वालों की अमीरी का भरम खुलता है
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Faiz Ahmad Faiz
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रहे वो ज़िक्र जो लब-हा-ए-आतिशीं से चले
रात भर ख़्वाब के दरिया में सवेरा देखा
कतरा के गुल्सिताँ से जो सू-ए-क़फ़स चले
उन को रोज़ इक ताज़ा हीला एक ख़ंजर चाहिए
सहराओं में दरिया भी सफ़र भूल गया है
रुख़्सत-ए-नुत्क़ ज़बानों को रिया क्या देगी
दीमक
लेते हैं तिरा नाम ही यूँ जागते सोते
नींद बन कर मिरी आँखों से मिरे ख़ूँ में उतर
हम को मंज़ूर तुम्हारा जो न पर्दा होता
अब्र आँखों से उठे हैं तिरा दामन मिल जाए
आँख जो नम हो वही दीदा-ए-तर मेरा है